

दुर्ग। डॉ. वीरबाला छाजेड़ “तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यक्त्व अर्थात् यथार्थ का श्रद्धान, तत्व का श्रद्धानं ही सम्यक्त्व है जो जैसा है, उसे उसी रूप में देखना सम्यग् दर्शन है। सम्यक्त्व गुण है और सम्यक्त्वी गुणी है। वस्तु अनेक गुण धर्म संपन्न होती है। एक वाक्य में समग्रता से उसे नहीं बताया जा सकता, अतः अलग-अलग नयों के माध्यम से उसे प्ररूपित किया जाता है अतः जैन दर्शन में अनेकान्त एवं स्यादवाद को मान्यता प्रदान की गई है।
तत्वार्थ सूत्र में आचार्य उनास्वाति ने लिखा है “सम्यग् दर्शन, ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः अर्थात् सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र मोक्ष मार्ग है। मोक्ष की प्रथम सीढ़ी सम्यग दर्शन है। सम्यग् दर्शन होने पर व्यक्ति का आरक्षण मोक्ष हेतु ट्रेन में हो गया, वह निश्चित रूप से मोक्ष प्राप्त करेगा। अतः जीवन में सम्यग् दर्शन अत्यंत ही महत्वपूर्ण है।
सम्यग् दर्शन क्या है ? इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? हम कैसे पहचानें कि
हम सम्यग् दृष्टि जीव हैं ? इसका क्या महत्व है ? व्यवहार नय एवं निश्चय नय से इसका
क्या स्वरूप है ? (1) व्यवहार नय से सम्यग् दर्शन का स्वरुप
चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणि जंतुणो माणुसुतं सुइसद्धा संजमम्मि वीरियं । ।
उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है। संसार में चार वस्तुयें दुर्लभ है-मानव जन्म, धर्म श्रवण, श्रद्धा एवं संयम में पराक्रम सम्यग् दृष्टि जीव की पहचान (1) देव गुरु धर्म पर श्रद्धा । (2) 9 तत्व-जीव-अजीव पुण्य-पाप, आश्रव-संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष को जानना । (3) पद्रव्य धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय, काल, जीवास्तिकाय एवं – पुद्गलास्तिकाय को जानना आदि। (4) सम्यग्दृष्टि जीव के लक्षण- 1. शम-उपशांत कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ)
2. संवेग- मोक्ष की इच्छा
3. निवेंग संसार से विरक्ति – 4. अनुकंपा- दया
5. आस्तिक्य आस्था
1. स्थैर्य
(5) सम्यग् दर्शन के भूषण –
2. भक्ति
3. प्रभावना
4. कौशल
5 तीर्थ सेवा
(6) सम्यग् दर्शन के दोष
1. शंका
2. काक्षा
3. विचिकित्सा
4. परपाषण्ड संस्तव
5. परपाषण्ड परिचय
(2) निश्चय नय से सम्यग् दर्शन का स्वरुप
“जे एमे जाणइ से सव्वं जाणइ” अर्थात् जो एक को जानता है, यह सबको जानता है “ऐगे आया” आत्मा एक है निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा को मानना सम्यग्दर्शन, आत्मा का जानना, सम्यग् ज्ञान एवं आत्मा से रमण करना सम्यग् चारित्र कहा गया है। आत्म स्वरुप का ज्ञान कैसे हो ? आत्ग साक्षात्कार कैसे हो ? इसके लिये व्यवहार व निश्चय दोनों नयों से आत्मा को समझें।
व्यवहार नय से आत्मा का स्वरुप-
आत्मा कर्मों से बंधी है, वह कर्ता भोक्ता है। कहा गया है: अप्पा कत्ता विकत्ताय
दुपट्ठियो सुपट्ठियो आत्मा ही सुख-दुःख की कर्ता है। आत्मा रागी-द्वेषी, क्रोधी, मानी आदि है जो कषाय को जीत ले, वह परम विजयी है। आठ महाप्रज्ञ कहते हैं मैं आत्मा को मानता हूँ चूंकि शास्त्रों में लिखा है. पर जानता नहीं। उदा, हम व्यवहार में कहते हैं:
1.राह रास्ता मुंबई जाता है, पर वास्तव में जातें हम हैं, रास्ता वहीं रहता है।
2. पानी के मटके से पानी लाओ। वास्तव में मटका मिट्टी का है, पानी का नहीं। आटा पिसा कर ले आओ, पर गेहूँ पीसा जाता है, आटा नहीं, आदि।
3.अनेक बातें व्यवहार दृष्टि से समझाने के लिये कही जाती है परन्तु सोचने पर यथार्थ कुछ और ही होता है। अशुभ प्रवृत्ति से हटाने के लिये शुभ प्रवृत्ति का उपदेश दिया जाता है परंतु शुभ-अशुभ प्रवृत्ति दोनों ही में पुण्य व पाप का बंध अवश्य होता है। एक सोने की बेड़ी है, एक लोहे की बेड़ी है। यदि शुद्ध निर्जरा करनी हो, तो निर्विकल्प अवस्था में आना उपयुक्त है जिसका अभ्यास प्रेक्षा ध्यान में करवाया जाता है। जैन धर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है। सम्यग् दर्शन को जानने के लिये मिध्यात्व को जानना भी आवश्यक है। मिथ्यात्व के प्रकार
1. अजीव को अजीव समझना।
12. अजीव को जीव समझना।
उदा. मैं जीव हूँ एवं शरीर पुद्गल निर्मित होने पर अजीव है। यदि मैं कहूँ कि यह शरीर मेरा है, घर मेरा है, तो मैं अजीव को मेरा मान कर मिथ्यात्व का दोष लगा रही हूँ। व्यवहार दृष्टि की अपेक्षा से कहना पड़ रहा है, पर मान्यता से मैं जान रही हूँ कि ये सब मेरा नहीं है। जैसे- भरत चक्रवर्ती । कर्म शरीर भी पुद्गल निर्मित है, अजीव है, तो यह मेरा कैसे हुआ ?
3. धर्म को अधर्म समझना ।
4. अधर्म को धर्म समझना ।
लौकिक एवं लोकोत्तर धर्म को न जानना लोक के धर्म को आत्मा का धर्म जानना ।
5. साधु को असाधु जानना ।
6. असाधु
को
साधु जानना ।
• पाँच महाव्रत धारी साधु को ही तिक्खुत्तो के पाठ से वंदन करना। जो पूर्ण अहिंसक नहीं है, वे पंचमहाव्रत में नहीं आते।
7. मार्ग को कुमार्ग समझना ।
8. कुमार्ग को मार्ग समझना। जो शुद्ध भाव है, निर्जरा का मार्ग है, उसे कुमार्ग समझना जो पुण्य का बंध है उसे अच्छा समझना क्योंकि पुण्य-पाप संसार में भ्रमण कराने वाला है।
9. बद्ध को मुक्त समझना (व्यवहार नय)
10. मुक्त को बद्ध समझना (निश्चय नय) अत्यंत महत्वपूर्ण चर्चा है, तो क्या है ? जिसे मैं बद्ध जान रहा हूँ। ‘आत्मा’ कर्मों से बद्ध है ? परन्तु निश्चय नय से आत्मा मुक्त है. ज्ञाता-द्रष्टा है, शुद्ध चैतन्य स्वरुप है, अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र सम्पन्न है जैसा कि प्रेक्षा ध्यान में संकल्प करवाया जाता है। भगवान महावीर ने कहा से सुयं च मे अज्झत्थियं च मे ।
बंधप्पमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव ।। अर्थात् मैंने सुना है व आत्म अनुभव से जाना है कि बंधन व मुक्ति तेरे भीतर है। भीतर क्या है विचार ! अतः हम विचारों से ही बद्ध व मुक्त हैं। ऊँट का उदाहरण …. उदा. शेर व भेड़।
निश्चय नय से आत्मा का स्वरुप- बिन्दु भी, हम सिंधु भी है। भक्त भी भगवान भी है।। समयसार – आचार्य कुंदकुंद, गाथा नं-4 है सर्वश्रुत परिचित अनुभूत भोग बंधन की कथा। पर से जुदा एकत्व की अनुभूति केवल सुलभ ना ।।
अर्थात् अब तक अनादि काल से हमने भोग व बंधन की कथा बहुत सुनी पर आत्मा से एकत्व की अनुभूति नहीं की। भेद विज्ञान नहीं किया। जीव अजीव सर्वथा व सर्वदा भिन्न हैं, ये एक दूसरे को छू भी नहीं सकते, एक दूसरे का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। वस्तु स्वातंत्र्य के अनुसार प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र है। इसके लिये हमें कुछ जैन दर्शन के मूल भूत
सिद्धान्तों को जानना होगा।
1. निमित्त उपादान कारण- दर्शन का नियम है, कोई भी कार्य बिना कारण नहीं होता।
मुख्य रूप से 2 कारण होते हैं। 1. निमित्त सहकारी कारण।
2. उपादान मूल कारण।
उदा. माली बीज लगाता है, इसके लिये खाद, मिट्टी, पानी सूरज की धूप सब सहकारी कारण है। मूल कारण बीज ही है। यदि बीज सड़ा होगा, तो पौधा नहीं उगेगा। निमित्त के बाद भी कार्य नहीं होगा। जीव हो या अजीव वे अपनी उपादान शक्ति से ही
परिणमित होते हैं। अतः किसी भी निमित्त को अपने भाग्य या स्थिति के लिये दोष देना गलत है तो व्यक्ति यह जान ले तो क्रोध का कारण ही समाप्त हो जायेगा।
1. यदि मेरा पुण्य प्रबल है तो कोई कुछ हानि नहीं पहुँचा सकता। यदि मेरा पाप प्रबल है तो कोई बचा नहीं सकता। दवा लेने में हर रोगी ठीक नहीं होता, यदि स्वयं की प्रतिरोधक क्षमता ना हो।
2. क्रमबद्ध पर्याय प्रकृति में हर घटना क्रम से होती है। पेड़ में पहले तना, पत्ती, फूल, फल, क्रमशः आते हैं। ऋतुयें सर्दी, गर्मी, बारिश क्रमशः आते हैं। खाना खाने पर क्रमशः स्वमेव पाचन होकर सप्तधातु में परिणित होते हैं व्यक्ति, बच्चा, जवान फिर वृद्ध होता है। हैं। यदि धैर्य को जीवन में जाना है, तो यह सिद्धान्त उपयोगी है। इस विराट ब्रह्माण्ड में हम एक बिंदु की तरह हैं।
3. भवितव्य- अणहोणी होसी नहीं, होणी हो सो होसी । बेमतलब बैचेन बन क्यूं धीरज खोणी।।
भ. महावीर ने कहा- गौशालक ये फली उत्पन्न होगी। नेमिनाथ ने कहा 12 साल बाद
द्वारिका जलेगी। भ ऋषभ ने कहा- मरीचि को जीव तीर्थंकर बनेगा।
यदि हम भगवान की सर्वज्ञता को मानते हैं कि उन्होंने तीनों लोक व तीनों काल-भूत, भविष्य, वर्तमान को जाना। निश्चित है, तभी जाना ? यदि सब भवितव्य है, तो हमारा पुरुषार्थ क्या? अभी तक जो पुरुषार्थ पर वस्तु के हेर-फेर करने में लगाया, उसे ‘स्व’ में, अर्थात् आत्मा में लगाना है, तभी हम कर्ता भोक्ता भाव से ज्ञाता-द्रष्टा भाव में प्रवेश कर सकेंगे याने स्वस्वरुप में आनंद का अनुभव कर सकेंगे। हमारी बुद्धि पर से हटकर (कचरे, कर्म, कषाय आदि) स्व आत्मा के निज आनंद में लगेगी, शुद्ध स्वरुप को हम प्राप्त कर सकेंगे। भिन्नता को बोध होगा, हम शरीर से भिन्न तो जानेंगे, पर कर्म से भी स्वयं को भिन्न जानेंगे। यही आत्मस्वरूप की जाग्रति है। जिसमें भ.महावीर 12.5 वर्षों तक रमण करके केवल ज्ञान को प्राप्त कर सकें। आयें आयें.. हम आएँ अपने घर भीतर आएँ। आ • महाप्रज्ञ द्वारा रचित गीत।
4 कर्मवाद / आत्मकर्तृत्ववाद – आचार्य महाप्रज्ञजी कहते हैं, ईश्वरवादियों ने ईश्वर को सर्वोपरि स्थान दे दिया, तो जैन दर्शन में कर्म को सर्वोपरि मान लिया गया। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, कर्म आदि ऊपर हो गये और चैतन्य नीचे हो गया, यह कैसे ? आत्मा अपने पुरुषार्थ से सर्वशक्तिमान बन सकती है। ‘अप्पा सो परमप्पा आत्मा ही परमात्मा है। अप्पा णइ वेयरणी, अप्पा में कूड़सामली, अप्पा कामदुहाधेनु अया में नंदणंवर्ग आत्मा वैतरणी नदी है. कल्पवृक्ष है, कामधेनु है और आत्मा ही नंदनवन है। अतः आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानें, मानें और उसमें रमण करें। शाश्वत आनंद का अनुभव करें। यही मंगल भावना ओम अर्हम् !
